*@मुख्तसर_कॉलम*
हाल ही में दिल्ली के करोल बाग स्थित रिलायंस ट्रेंड्स स्टोर के बाहर फ़िलिस्तीन के समर्थन में हुए प्रदर्शन ने एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा किया है: क्या हम अपने पैसे से ज़ालिम को ताक़त दे रहे हैं? यह प्रदर्शन केवल एक प्रतीकात्मक विरोध नहीं था, बल्कि एक स्पष्ट संदेश था कि भारत का जागरूक नागरिक अब खामोश नहीं रहेगा—खासकर तब जब कोई कंपनी इज़राइली युद्ध मशीनरी से सीधे या परोक्ष रूप से जुड़ी हो।
*रिलायंस पर आरोप है कि वह इज़राइली कंपनियों के साथ व्यापारिक रिश्ते रखती है, खासकर रक्षा और ऊर्जा के क्षेत्रों में।* भले ही ये आरोप स्वतंत्र रूप से अभी सिद्ध न हुए हों, लेकिन यह सच है कि उपभोक्ताओं को यह अधिकार है कि वे अपनी मेहनत की कमाई ऐसे संस्थानों पर खर्च करें जो मानवाधिकार और वैश्विक न्याय के सिद्धांतों पर खरे उतरते हों।
यह मामला सिर्फ रिलायंस तक सीमित नहीं है। दर्जनों अंतरराष्ट्रीय और भारतीय कंपनियाँ इज़राइल की अर्थव्यवस्था को मज़बूती दे रही हैं, जो अंततः ग़ाज़ा में हो रही हिंसा और रक्तपात को सहारा देती हैं। अब समय आ गया है कि हम केवल सोशल मीडिया पर गुस्सा ज़ाहिर न करें, बल्कि व्यावहारिक कदम उठाएँ।
हमें उन सभी कंपनियों का बहिष्कार करना चाहिए जो इज़राइली उत्पादों की नुमाइंदगी करती हैं, चाहे वह फैशन हो, टेक्नोलॉजी हो या वित्तीय सेवाएँ। बहिष्कार (Boycott), निवेश वापसी (Divestment) और प्रतिबंध (Sanctions)—यानि BDS आंदोलन—आज दुनिया भर में एक प्रभावशाली विरोध की रणनीति बन चुका है। भारत को भी इस वैश्विक जागरूकता का हिस्सा बनना चाहिए।
यह बहिष्कार केवल फ़िलिस्तीन के साथ हमदर्दी नहीं, बल्कि एक जागरूक और ज़िम्मेदार समाज की पहचान है। जब हम कहते हैं "फ़िलिस्तीन ज़िंदाबाद", तो हमें इस नारे को अपने कर्मों से भी साबित करना होगा। और पहला कदम है—ज़ालिम की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने से खुद को रोकना।
✍: आफ़ताब अज़हर सिद्दीक़ी
किशनगंज, बिहार
23 जून 2025
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